लाशों पर लाठीचार्ज?

14 03 2007

कुछ देर पहले मैं समाचार देखने के लिए टी. वी. के सामने बैठा। सभी चैनल पर एक ही स्टोरी चल रही थी। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में एस. ई. ज़ेड.(विशेष आर्थिक जोन) के लिए अपनी जमीन लिए जाने का विरोध करते किसान और उस विरोध के नतीजे के रुप मे उन किसानों व उनके परिजनों पर  पुलिस का कहर किस तरह टूटा।
पुलिस ने वहां आंसू गैस छोड़े, फ़ायरिंग की, नतीजा यह कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दस लोग मारे गए( टी वी चैनल से फोन पर बातचीत में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बैनर्जी ने कहा कि दो सौ लोग मारे गए है)। पुलिस ने सिर्फ़ यहीं पर बस नही किया, समाचार चैनल के कैमरे ने यह भी रिकार्ड किया कि किस तरह अपने परिजन की लाश उठा रही महिला पर पुलिस जवान ने डंडे बरसाए। कोई आश्चर्य नही अगर मौके पर पुलिस ने लाशों पर भी डंडे बरसाए हों।
यह पहला मौका नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ हो। मैं अगर अपने ही राज्य छत्तीसगढ़ की बात करुं तो यहां के लोग अभी भी नहीं भूले हैं कि किस तरह व्यापारियों पर, शिक्षकों पर, प्रमुख विपक्षी दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं पर बेरहमी से डंडे बरसाए गए थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश ऐसी ही घटनाएं आम बात है।  ऐसी खबरों के बाद एक जांच कमीशन बिठा दिया जाता है( जिसकी जांच अक्सर सालों चलती रहती है), पीड़ित परिवार को मुआवजा दे दिया जाता है, बस हो गया काम।

फ़्री हैंड किए जाने पर पुलिसिया बर्बरता की यह खबर नई नहीं हैं। पुलिस तो सरकारी आदेश का पालन कर रही थी लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में पुलिस अक्सर फ़्री-हैंड किए जाने पर इस कदर बर्बर क्यों हो जाती है…मानों इंसानियत से उसका कोई नाता नही,
क्या यह पुलिस जवानों का फ़्रस्ट्रेशन होता है या उनके मन में चौबीस में से बीस घंटे वाली नौकरी के कारण भरा हुआ गुस्सा या खीझ होता है जो अक्सर ऐसे मौकों पर बिना किसी रोक-टोक के बेधड़क  निकलता है। देश के नागरिक पर यदि आतंकी या कोई अन्य हमला करे तो इंसान सबसे पहले पुलिस से सहायता की उम्मीद करता है लेकिन जब पुलिसिया कहर इस तरह बरपे तो नागरिक तुरंत कहां जाए, किस से सहायता मांगे, जब खाकी आतंक बरसे तो कहां से मदद मिलेगी तत्काल।
पुलिसिया कहर से हटकर इस मामले को देखें तो यह हालत तकरीबन पूरे देश में है, विशेष आर्थिक जोन बनाने के विरोध में किसान अपनी जमीन लिए जाने का विरोध कर रहे हैं और सरकार के कानों मे जूं तक नही रेंग रही।


क्रिया

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3 responses

15 03 2007
अनुराग मिश्र

बड़ा फ्स्टेशन हो रहा है ये खबर देख कर 😦

15 03 2007
अभय तिवारी

ठीक सवाल उठाया है आपने.. किसकी है पुलिस.. क्या जनता उसे अपनी रक्षा के लिये काम कर रही फ़ोर्स समझने की ग़लती कर सकती है?.. मुझे तो नहीं लगता कि कोई भी ये ग़लती करता है.. देश के सभी नागरिक पुलिस से वैसे हे बचना चाहते हैं जैसे कि किसी गुण्डे मवालि से.. जितना दूर रहे उतना ही अच्छा.. जैसे गली के किसी कटखन्ने कुत्ते से.. आप नज़र बचाके निकल जाना चाहते हैं उसके आगे से.. तो पुलिस किस की रक्षा कर रही है.. किस की सेवा कर रही है.. देखिये ध्यान से पुलिस आप को क्या करती दिखाई देती है..सरकार को जनता से बचाने के अलावा.. आम जीवन में उसे अपनी निष्ठा की दिशा पता रहती है… निठारी में पुलिस किसके पक्ष में स्वतः खड़ी पाई गई..?..वो सिर्फ़ एक उदाहरण है..
लेकिन बंधु नन्दिग्राम में पुलिस से ज़्यादः महत्वपूर्ण बात एक ऎसी सरकार का निष्ठुर दमन है.. जो जनवादी होने के दम पर तीस साल से बंगाल में शासन कर रही है..शासन की इस लम्बी अवधि के मूल में, जनता के मन में उनके द्वारा किये गये भूमि सुधार की स्मृति है.. किसानों के हित के इस एक काम के कारण.. वाममोर्चा लगातार जीत रहा है.. आज बाकी देश के साथ बाज़ारीकरण की प्रक्रिया में पीछे न रह जाने के डर से वा.मो. अपने पैर पर कुल्हाड़ी चला रहा है.. किसानों को ही गोली मार रहा है…और बौखला कर लोगों के मरने का दोष ममता बनर्जी पर मढ़ रहा है..

15 03 2007
Shrish

भईया समस्या वही पुरातन सनातन है। भारतीय पुलिस अंग्रेजो ने भारतीय जनता का दमन करने के लिए उसे काबू में रखने के लिए किया था, देश आजाद हो गया लेकिन पुलिस का मॉडल वही है।

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