अपना चिट्ठा अब वर्डप्रेस की बजाय ब्लॉगर में

17 03 2007

ई-पंडित श्रीश मास्साब के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपन ने तय किया कि अपना चिट्ठा वर्डप्रेस से ब्लॉगर में ले जाएं।
मेरे नए चिट्ठे का कड़ी या लिंक है
http://sanjeettripathi.blogspot.com/
नए चिट्ठे पर जाने से पहले धन्यवाद श्रीष मास्साब का जिनके पुरालेखों को पढ़-पढ़ कर मैनें बहुत कुछ सीखा, और सीखने की प्रक्रिया अभी जारी ही है।

नए चिट्ठे की सूचना नारद मुनि को भेज रहा हूं पंजीकरण के लिए,  आदि पत्रकार नारद मुनि का आशीर्वाद लेना ज्यादा जरुरी है।

यह पोस्ट सूचनार्थ
तो फ़िर मिलते हैं नए चिट्ठे पर





लाशों पर लाठीचार्ज?

14 03 2007

कुछ देर पहले मैं समाचार देखने के लिए टी. वी. के सामने बैठा। सभी चैनल पर एक ही स्टोरी चल रही थी। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में एस. ई. ज़ेड.(विशेष आर्थिक जोन) के लिए अपनी जमीन लिए जाने का विरोध करते किसान और उस विरोध के नतीजे के रुप मे उन किसानों व उनके परिजनों पर  पुलिस का कहर किस तरह टूटा।
पुलिस ने वहां आंसू गैस छोड़े, फ़ायरिंग की, नतीजा यह कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दस लोग मारे गए( टी वी चैनल से फोन पर बातचीत में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बैनर्जी ने कहा कि दो सौ लोग मारे गए है)। पुलिस ने सिर्फ़ यहीं पर बस नही किया, समाचार चैनल के कैमरे ने यह भी रिकार्ड किया कि किस तरह अपने परिजन की लाश उठा रही महिला पर पुलिस जवान ने डंडे बरसाए। कोई आश्चर्य नही अगर मौके पर पुलिस ने लाशों पर भी डंडे बरसाए हों।
यह पहला मौका नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ हो। मैं अगर अपने ही राज्य छत्तीसगढ़ की बात करुं तो यहां के लोग अभी भी नहीं भूले हैं कि किस तरह व्यापारियों पर, शिक्षकों पर, प्रमुख विपक्षी दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं पर बेरहमी से डंडे बरसाए गए थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश ऐसी ही घटनाएं आम बात है।  ऐसी खबरों के बाद एक जांच कमीशन बिठा दिया जाता है( जिसकी जांच अक्सर सालों चलती रहती है), पीड़ित परिवार को मुआवजा दे दिया जाता है, बस हो गया काम।

फ़्री हैंड किए जाने पर पुलिसिया बर्बरता की यह खबर नई नहीं हैं। पुलिस तो सरकारी आदेश का पालन कर रही थी लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में पुलिस अक्सर फ़्री-हैंड किए जाने पर इस कदर बर्बर क्यों हो जाती है…मानों इंसानियत से उसका कोई नाता नही,
क्या यह पुलिस जवानों का फ़्रस्ट्रेशन होता है या उनके मन में चौबीस में से बीस घंटे वाली नौकरी के कारण भरा हुआ गुस्सा या खीझ होता है जो अक्सर ऐसे मौकों पर बिना किसी रोक-टोक के बेधड़क  निकलता है। देश के नागरिक पर यदि आतंकी या कोई अन्य हमला करे तो इंसान सबसे पहले पुलिस से सहायता की उम्मीद करता है लेकिन जब पुलिसिया कहर इस तरह बरपे तो नागरिक तुरंत कहां जाए, किस से सहायता मांगे, जब खाकी आतंक बरसे तो कहां से मदद मिलेगी तत्काल।
पुलिसिया कहर से हटकर इस मामले को देखें तो यह हालत तकरीबन पूरे देश में है, विशेष आर्थिक जोन बनाने के विरोध में किसान अपनी जमीन लिए जाने का विरोध कर रहे हैं और सरकार के कानों मे जूं तक नही रेंग रही।





नारी

8 03 2007

महिला दिवस के अवसर पर जानी-अनजानी सभी महिलाओं को बधाई के साथ शुभकामनाएं कि वह जिस भी क्षेत्र में हों दिन-दुनी रात-चौगुनी तरक्की कर अपना व अपनों का नाम रौशन करें

नारी

झलकती है,
तुम्हारे विचारों से
चट्टानों सी दृढ़ता।
चमकता है,
तुम्हारी आंखों में
ख़्वाहिशों का आसमान।
झुक जाए पर्वत भी,
तुम्हारी इच्छाशक्ति के सामने।
बावजूद इसके,
भरी है
करूणा कूट-कूट कर
तुम्हारे मन में।
हो उठती है
नम तुम्हारी आंखें,
कई-कई बार
क्योंकि तुम
नारी हो
करूणत्व ही
तुम्हारी पहचान है।





सभी को होली की रंगारंग शुभकामनाएं

3 03 2007

holi7.jpg

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों
ख़ुम शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिholi3.gifचकारी को
                                                अँगिया पर तक के मारी हो
                                              सीनों से रंग ढलकते हों
                                                  तब देख बहारें होली की
                                               जब फागुन रंग झमकते हों
                                      तब देख बहारें होली की
                                                                        –नज़ीर अकबराबादी





कभी-कभी

20 02 2007

कभी-कभी

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि कुछ सोचना भी भारी लगे
और सोचे बिना रहा न जाए!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
लगे ऐसा मानों हाथ-पैरों में जान न हो!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि व्यर्थ सा लगे सब कुछ!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि मन लगे उदास-उदास!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि आंख भर आए अपने-आप बिना कारण!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि तमन्ना भी नहीं रहती बाकी!

क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
खाली सा हो जाता है दिमाग भी!





मैत्री

20 02 2007

मैत्री

मित्रता
करोगे क्या तुम मुझसे
कहते हो
यदि तुम हां
तो चलो!
चलें मिलकर
हम पार क्षितिज के!
स्वीकार है यदि तुम्हें
मेरी मित्रता तो पाओगे सदा तुम
मुझे अपने पास,अपने साथ
चाहे सुख हो या दुख।
साथ दुंगा मैं तुम्हारा
रोने में भी
लेकिन करना होगा वादा
तुम्हें एक
रोने के बाद तुम हंसोगे भी।
साथ दुंगा मैं तुम्हारा हंसने में भी।
मैत्री इसे ही कहते हैं
मित्रता करोगे क्या तुम मुझसे
कहते हो यदि तुम हां
तो चलो………





कुछ विचार “राम” पर

19 02 2007

एक

राम!
तुम भगवान न थे
तुम तो थे,प्रतीक मात्र
और हो!
दीन-हीन जनों के संबल का
विश्वास का!
उस धर्म-मर्यादित आचरण के
जिसके कारण तुमने भोगा
चौदह सालों का वनवास
और
उपहार मिला तुम्हे
सीता विछोह का

राम!
तुम भगवान न थे
तुम तो थे प्रतीक मात्र
और हो
पुत्र धर्म के
प्रजा के पालनहार सत्यनिष्ठ राजा के!

कौन कहता है तुम भगवान थे
तुम तो इंसान ही थे
तभी तो पूजा था तुमने शिव को!
ये और बात है कि तुम “आदर्श” थे
तुम्हारे कर्मों ने तुम्हे हमसे ऊंचा उठा दिया
इतना ऊंचा कि
तुम भगवान के समकक्ष हो गए
पूजे जाने लगे
भगवान कहलाने लगे
राम!
तुम इंसान ही क्यों न रहे!

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दो

राम!
तुम्हारा नाम
लक्ष्मण या कुछ और होता
तो क्या
तुम वह सब ना करते
जो तुमने किया!

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तीन

राम!
कभी-कभी
तो लगता है
तुम भगवान ही थे
इंसान नही
क्योंकि
जिस सीता के लिए
तुमने लंका का नाश किया
उसे!
उसे ही तुमने त्याग दिया
इंसान तो ऐसा नहीं कर सकता!





युवा कवि नीलेश “नील”

18 02 2007

रायपुर में जन्में, भोपाल से मैकेनिकल इंजीनीयरिंग करने वाले युवा कवि नीलेश  वर्तमान में लंदन में है। इनके बारे मे बशीर बद्र साहब कहते हैं   “नीलेश “नील” सच्ची कविताओं की नई आवाज़ है।  इनकी कविताएं अपनी आहंग और मौसीक़ी (Rhythm and Music) के लिहाज़ से मुझे बादलों का सफ़र लगीं।”

बेआबरु

तुझे लूट के क्या हासिल करुं मैं
खुद जो लूट चुके तुझसे
हमें प्याला अपना ही दे दे
मिट जायेंगे तुझपे
उस रोज मैं फ़रिश्ता था
उस लम्हां तू फितरत हुई
अब हर दिन शैतान का-इंसान को
फ़र्क नहीं मिलता अपने खत्म होने तक………

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जुमेराती
( भोपाल शहर के नाम )

ये सड़क नहीं
काबिले-जन्नत है
जुमे की नमाज़ का मौसम है
बुजूर्गों की जमात है
बच्चों की ख़्वाहिश है
माहौल की नुमाईश है

शहर (भोपाल) का आशियाना यहां
ये सड़क नहीं
जन्नत की मुस्कान है
मुकद्दर का आईना है
मस्जिद की राह है
ईद की मोहब्बत है यहां
बेखौफ़ हर अंदाज़
की फ़ितरतें हैं यहां
यही है वो
चौदहवीं की  राह
जुमेराती-जुमेराती-जुमेराती

 

 

(नीलेश “नील” के प्रथम हिंदी काव्य,ग़ज़ल,नज़्म और शे’र संग्रह “चुभन” से साभार)





कब आओगे श्याम

16 02 2007

कब आओगे श्याम  

हे श्याम
तुम कब आओगे,
प्रतीक्षारत है मेरा मन।

बीते कितने ही वर्ष,
बीती न जाने कितनी सदियां।
सूख गई कई नदियां,
पर तुम न आए।
आखिर तुम कब आओगे
जाने तुम आओगे भी या नहीं।

मनमोहन
कहते हो तुम
मैं तुम में ही बसती हूं
इसका अर्थ यह तो नहीं
कि हम मिले ही नहीं।

कहता है मेरा ह्र्दय,
आओगे तुम अवश्य ही!

श्याम!
तुम्हारी बंशी की
तान ही तो  हमारी प्राण है।
कब गुंजेगी यहां फ़िर से
तुम्हारी बंशी की मीठी-मनमोहिनी तान!

सांवरे!
कब तक करवाओगे युं प्रतीक्षा,
कब तक चलेगी यह अग्निपरीक्षा!

आ जाओ अब, न केवल थके है नैन
बल्कि थक गया है मन भी
श्याम!
कब आओगे तुम।





आस-पास

16 02 2007

आस-पास

घट रहा है, आस-पास मेरे
ऐसा कुछ
जिसे मैं देख तो रहा हूं,
बस! व्यक्त नहीं कर पाता।
ऐसा नहीं है कि
मन मे विचार उठते नहीं है।
बस! कलम रुक जाती है,
चलना ही नहीं चाहती।
घट रहा है, आस-पास
अपरिचितों के साथ,
मेरे अपनों के साथ,
मेरे साथ,
कुछ ऐसा
करना चाहता हूं मैं
विरोध जिसका।
लेकिन
शक्ति कोई
अनजानी-अजनबी सी
पकड़ लेती है गला मेरा
कि नहीं
आवाज़ ना निकले
मुंह से,
कलम ना चले
कागज़ पर
घट रहा यही सब कुछ
आस-पास मेरे